रिपोर्टर मोहम्मद कैफ खान
रामनगर। जैसे ही शहर में चेयरमैन और सभासद पद के चुनाव नज़दीक आते हैं, अचानक प्रत्याशियों की सक्रियता बढ़ जाती है। चुनावी माहौल में हर गली, हर नुक्कड़, और हर वार्ड में इन दिनों समस्याओं का हल ढूंढ़ते प्रत्याशी दिखाई देने लगे हैं। कोई आंखों के मुफ्त कैंप लगवा रहा है तो कोई सफाई अभियान चला रहा है। सड़क, नाली और बिजली की समस्याओं पर हर प्रत्याशी गहरी चिंता जताते हुए वोटरों के दरवाजे खटखटा रहा है।चुनाव के समय उम्मीदवारों का जनता से जुड़ना और उनकी समस्याओं को हल करने का वादा करना एक आम चलन बन गया है। लेकिन पिछले चुनावों के अनुभव बताते हैं कि ये दिलचस्पी अधिकतर चुनाव के दिन तक ही सीमित रहती है। जीतने के बाद कई प्रतिनिधि गायब हो जाते हैं, मानो पांच साल तक जनता की समस्याएं उनके एजेंडे में नहीं होतीं। लोगों का कहना है कि हर चुनाव में एक ही कहानी दोहराई जाती है। चुनाव जीतने के बाद वही नेता, जो कभी गली-गली घूमकर जनसमस्याओं का हल निकालने की बात करते थे, अचानक “नदारद” हो जाते हैं। वार्डों की सड़कें टूटी रहती हैं, जलभराव की समस्या बनी रहती है, लेकिन पांच साल तक कोई सुनवाई नहीं होती। स्थानीय निवासियों का कहना है “जब चुनाव आते हैं, तो हमारे दरवाजे पर आने वाले नेता अचानक हमारे ‘मित्र’ बन जाते हैं, लेकिन उसके बाद उनकी शक्ल भी नहीं दिखती। हमने कई बार असुविधाओं के बारे मैं शिकायत की, लेकिन सब बेकार रहा।” अक्सर उम्मीदवार चुनाव प्रचार के दौरान बड़े-बड़े वादे करते हैं – बेहतर सड़कें, साफ-सुथरा शहर, बिजली-पानी की सुविधाएं, और हर परिवार को सहयोग। लेकिन चुनाव जीतने के बाद इन वादों का क्या होता है, यह जनता के लिए आज भी एक सवाल है। क्या यह चुनावी सक्रियता केवल वोट बटोरने का हथकंडा है?
अधूरे वादों और नाकाफी कामों ने जनता के भरोसे को कमजोर कर दिया है। शहर के कई लोग अब यह सवाल उठा रहे हैं कि यदि प्रतिनिधि सिर्फ चुनावी मौसम में सक्रिय रहते हैं, तो उन्हें फिर से मौका क्यों दिया जाए? इस बार मतदाता बदलाव की मांग कर रहे हैं। शहर के युवा अब उन प्रत्याशियों से जवाब मांग रहे हैं, जो पिछले कार्यकाल में नाकाम रहे। लोगों का कहना है कि इस बार वे विकास कार्यों के आधार पर वोट करेंगे, न कि केवल चुनावी वादों पर भरोसा करेंगे। प्रत्याशियों की यह सीजनल सक्रियता न केवल जनता को गुमराह करती है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों पर भी सवाल उठाती है। अगर नेता जनता के सेवक बनकर पांच साल तक सक्रिय रहें, तो शायद चुनाव के समय इतना दिखावा करने की ज़रूरत ही न पड़े।