Thursday, November 21, 2024
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बोझ तले मासूम – जिम्मेदार कोन?

रफी खान / उत्तराखंड

(विश्व बालश्रम निषेध दिवस पर एक विशेष रिपोर्ट)

ऐ मेरे बचपन कहाँ हे तू क्यों तू मुझे इस बेगानी दुनिया में यूं अकेला छोड़कर चला गया, देख मेरे पास न इतना जरिया है की में स्कूल पड़ने जा सकू और न ही मेरे पास खेलने को खिलोने है और तो और मेरे पास तो अपना तन ढकने को कपडे भी नहीं – पेट भरने को रोटी भी नहीं ! देख यह दुनिया मेरी सुध लेती भी नहीं आखीर तू कहा चला मुझे अकेला इस काम के बोझ तले दबाकर”

ढाबो और ठेलियो पर काम करते जाने कितने मासूमो के दिलो से निकलती इस तरह की “आह” रोजाना आसमानो में गूंजती है पर अफ़सोस इनकी आवाज हमारे और आपके कानो तक नहीं पहुंच पाती है ! जी हां ये कुदरत का निज़ाम है की पैदा होने के बाद हर आँख अपने में हज़ारो नहीं वल्कि लाखो सपने और अगड़ाईया के साथ खुलती है पर गरीबी में खुलने वाली बचपन की आँखों को न तो कोई पड़ने को स्कूल ही नसीब हो पाता है और न ही ढंग से उनकी परवरिश का कोई आसरा !

प्राकृतिक सम्पदाओ से भरपूर हमारे उत्तराखंड प्रदेश ही नहीं वरन सम्पूर्ण भारतवर्ष में बचपन आज जैसे कही गुम सा हो गया प्रतीत होता है,आज की इस भागमभाग व महंगाई भरी दौड़ में पिसता बचपन और बोझ तले दबता बचपन आसानी से कही भी देखा जा सकता हे !

यह हर कोई देखता है कि हर क्षेत्र में छोटे-छोटे मासूम बच्चे काम के बोझ तले लगातार दबते चले जा रहें हैं,ठेलियो-खोको पर बर्तन धोते,पंक्चर लगाते और बोझा उठाते बचपन को पिसते हुए देखना अब आम हो चला हे,इससे जुड़ा प्रशासन जहाँ बढ़ते बाल श्रम पर रोक लगाने में अक्षम बना हुआ हे तो वही देश और प्रदेश की सरकारें इसको लेकर निति बनाने के लिए फाइलों में ही गुम नज़र आती हैं ! हालाकि पुलिस द्वारा चलाए जा रहे बेहद सरहनीय ऑपरेशन मुक्ति और आपरेशन मुस्कान ने मासूमों के जख्मों पर मलहम जरूर लगाया है लेकिन बोझ तले दबते बचपन की तादाद के आगे यह ऐसा ही है जैसे ऊंट के मुंह में जीरा।

फरिश्तो की मानिंद अपने में मासूमियत समेटे छोटे-छोटे बच्चे आज जिस तरह से काम के बोझ तले दबते जा रहे हे उसको देखने और सँभालने के लिए सरकारों को ठोस नीति बनाकर धरातल पर उतारनी चाहिए वरना लम्बी लम्बी आरामदेह कुर्सियों पर विराजमान हमारे अधिकारियो को बचपन सिर्फ 12 जून (विश्व बालश्रम दिवस)14 नबम्बर (बालदिवस) को ही याद आता है।

देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर वर्तमान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक इन मासूम बच्चो पर और काम के बोझ तले खोते बचपन पर यूँ तो बहुत सी सरकारी योजनाओ को अमली जामा पहनाया जाता रहा है लेकिन धरातल पर इसको सही दिशा देने का साहस अभी भी नहीं हुआ है निसंदेह इसपर बहुत ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है यदि ऐसा होता हे तो हमारे देश को महाशक्ति के रूप में विकसित होने से कोई नहीं रोक सकता ! सरकार और शासन को ही नहीं बल्कि जरुरत हे आज समाज के हर तवके को ऊपर उठकर काम के बोझ तले खोते बचपन को सम्भालना होगा जिससे मासूमो के खोये हुए सपनो को बापस लाकर देश की मुख्य धारा से जोड़ा जा सके !

Rafi Khan
Rafi Khan
Editor-in-chief
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